A. Nagrajji

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"जीवन विद्या स्वास्थ संयम के आधार पर स्वास्थ्य को पहचानना"
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प्रश्न- बाबा जी आज धरती पर हजारों चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, इतने मानवों का श्रम उसमें लगा है इतना धन नियोजित होने के बाद भी मानव जाति का स्वास्थ्य आज भी बिगड़ा हुआ है। जितना धन लगाया जा रहा है, जितने यंत्र का अनुसंधान किया जा रहा है उसके बावजूद भी रोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। नए नए रोग पैदा होते जा रही हैं। पुरानी पद्धति से भी जैसे दावा किया जाता है वैसी उपलब्धि नहीं होती और आधुनिक पद्धति से भी जो बात कही जाती है दो प्रमाणित नहीं होती। इस संबंध में आप जीवन विद्या स्वास्थ संयम के आधार पर कैसे स्वास्थ्य को पहचानना चाहेंगे।

उत्तर- आपने जो बोला वो प्रश्न कम ज्यादा सभी का है। इतना सब प्रयत्न विशेषज्ञता के लिए है। जबकि विशेषज्ञता एक भूत है, पिशाच की तरह है वो सबको मार देता है। हम विशेषज्ञ हैं इसलिए हम जो कहते हैं वह सही है ऐसा मान लेने के आधार पर सर्वाधिक अपराध हुआ। 

उसमें सबसे ज्यादा अपराध उन्हीं के ऊपर हुआ जो रोगी थे। रोगी जब अपनी तकलीफों को सुनाने लगता है तो डॉक्टर सुनना नहीं चाहते, वे रोगी को मशीन से सुनना चाहते हैं। मशीन से मनुष्य के दर्द का पहचाना होता नहीं।कुल मिला कर मनुष्य ही मनुष्य के दर्द को सुन सकता है, पहचान सकता है यह बात यंत्र से होता नहीं और हम रोग को पहचान नहीं पाते हैं। 

पहले जो कुछ लोग आयुर्वेद विधि से, यूनानी विधि से और विधियों से नाड़ी ज्ञान के आधार पर तकलीफ़ों को पहचानने की कोशिश किए वह सराहनीय है। वे नाड़ियों के द्वारा, नाड़ी के गति के द्वारा, दबाव के द्वारा, प्रवाह के द्वारा, खिंचाव के द्वारा, तनाव के द्वारा जो रोग को पहचानने की कोशिश की है वह सराहनीय है। 

शनै: शनै: कालांतर में, यंत्र को देखकर उसकी (नाड़ी परीक्षण की) कठिनता को स्वीकार करते हुए, आदमी यंत्र की और दौड़ लिया। अब सब लोग यंत्र से ही बीमारी और दर्द सुनना चाहते हैं। यंत्र के आधार पर हम कुछ भी निर्णय लेते हैं रोगी तृप्त  होता नहीं और रोग के मूल स्वरूप से चिकित्सक दूर ही रह जाता है। उसके लिए युक्ति, अनुसंधान, शोध करने की बात आती है। उसमें चूक हो ही जाती है क्योंकि अनुकूलता प्रतिकूलता को जो शोध करना चाहिए वह बीमार के साथ वह चीज होता नहीं है। 

सारी विशेषज्ञता संग्रह सुविधा में फंस गई। मरीज को देकर दवाई लिखने का पचास रु. से लेकर दो हजार रु. तक लेते हैं। मैंने देखा है पचास रु. लेकर जो दवाई दिखता है वही दवाई दो हजार रु. लेकर बड़े शहर का विशेषज्ञ लिखता है। यहाँ हमने इस बात को ध्यान दिलाया कि मनुष्य कैसा पागल हो गया है। ज्यादा पैसा लेने वाला ज्यादा अच्छा चिकित्सक है ऐसा सोचता है, तो उस सीमा से अधिक उसमें अपेक्षा हो नहीं सकती। 

तीसरी बात हम चिकित्सा में समग्रता के साथ कभी सोचे नहीं अर्थात चिकित्सक बनने की सोचे ही नहीं, ऐसा प्रयत्न ही नहीं किया। चिकित्सा समग्रता का मतलब पहले स्वास्थ अथवा निरोग की बलाबल को पहचाना जाए। रोग के बलाबल को कैसा पहचानेंगे? नाड़ी से पहचानेंगे? नाड़ी में क्या पहचानेंगे? नाड़ी में यह बताएंगे नाड़ी की गतियों की पहचान कर रोगों का साक्षात्कार करेंगे और लक्षणों से मिलाकर निश्चय करेंगे कि ये ही रोग है। उसका हम चिकित्सा करते हैं सफल होता है तो हमारा समझना सही माना जाए और यदि असफल होता है तो हमारा समझना गलत है फिर या शोध की बात बनता है। अभी की स्थिति में देखने को मिलता है जो जैसा चिकित्सा करता है अपने को सही मानता है। सफल हो या असफल हो हम सही चिकित्सा दिये हैं यही मानता है। इसके कारण हम प्राण संकट में फस गए। 
तो पहले रोग को पहचानना रोग के बलाबल को पहचानना, औषधियों को पहचानना, औषधियों की बलाबल को पहचानना, उनके योग-संयोग को पहचानना, उनके अनुपान प्रयोग को पहचानना, रोगी की मानसिकता को पहचाना, उसके पथ्य परहेज को पहचानना, नियम- संयम को पहचानना, फिर उपचार को पहचानना, यह सब एकत्रित होने से समग्र चिकित्सा है। 

औषधि योग से संपूर्ण चिकित्सा हो सकता है। मणि चिकित्सा किरण- विकिरण की ही बात करता है। मंत्र चिकित्सा अपने मानसिक तरंग के ऊपर ज्यादा प्रभाव डालता है केवल औषधि अधिक से अधिक रस क्रियाओं के साथ घुल करके रस परिवर्तन लाने के काम में आता है। रोगों को कैसे दूर करना है शरीर व्यवस्था जितना जानता है उतना कोई डॉक्टर नहीं जानता है। शरीर को ठीक करने की ट्रेनिंग व्यवस्था शरीर व्यवस्था में निहित है। डॉक्टर शरीर के साथ जबरदस्ती करते हैं। चिकित्सक को क्या करना चाहिए? शरीर व्यवस्था को बलवती बनाने के लिए शरीर अवस्था के अनुकूल रस द्रव्यों को शरीर को देना चाहिए। यही चिकित्सक की खूबी है, यही महिमा है, यही उनका विवेक- विज्ञान है। ऐसी चिकित्सा से हम पार पा सकते हैं। अत: चिकित्सा को विशेषज्ञता से निकालकर  लोकव्यापी बनाना चाहिए।

स्वास्थ्य का मतलब शरीर से होता है। संयम का मतलब मन से होता है। जो न्याय होता है, नियमित होता है, नियम के आधार पर होता है, नियंत्रण के आधार पर होता है, संतुलन के आधार तो होता है।यही संयम है। अतः संतुलनपूर्वक न्यायपूर्वक होने वाली मानसिकता को संयम कहते हैं। उसकी क्या दवाई है? उसके लिए क्या किया जाए? उसके लिए समझदारी दवाई है।  नासमझी से असंतुलन, मानसिक असंतुलन, समझदारी से संतुलन बहुत साधारण सूत्र है। समझदारी के अर्थ में संपूर्ण व्यवस्था है, संतुलन है।
हरिहर

* (स्रोत- जीवन विद्या –एक परिचय, सं.- 2010, मुद्रण-2017, अध्याय:4, पृष्ठ नंबर:119-121)
* अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
* प्रणेता - श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी